फिल्म समीक्षा
थैंक गॉड (Thank God Movie Review)
रामकिशोर पारचा
दो टूक : कहते हैं कि धरती पर जन्मे हर प्राणी के पाप और पुण्य का हिसाब इसी धरती और इसी जन्म में होता है. अजय देवगन और सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ रकुल प्रीत के अभिनय वाली निर्देशक इन्द्र कुमार की नयी फिल्म ‘थैंक गॉड’ हमें एक ऐसी ही दुनिया दिखाने की कोशिश करती है जो यमलोक, परलोक, यमदूत और चित्रगुप्त जैसे पात्रों को आधुनिकी कारण के साथ ही नहीं मिलाती बल्कि जीवन और मरण के साथ मानव सभ्यता की इंसानियत से जुड़े सवाल के जवाब भी तलाशती है . यह अलग बात है कि थैंक गॉड नार्वे की एक फिल्म ‘सोरते कगलर’ से प्रेरित है जहां इसका अर्थ होता है थैंक गॉड.
कहानी : फिल्म की कहानी अयान कपूर (सिद्धार्थ मल्होत्रा) नाम के एक रियल स्टेट बिजनेसमैन की है जो पैसा कमाने के लिए कुछ भी कर सकता है. लेकिन एक बड़ी डील के बाद जब नोटबंदी में वो कंगाल हो जाता है तो उसकी ज़िंदगी ही बदल जाती है. यही नहीं, गुस्सैल अयान जब अचानक ही एक एक्सीटेंड में हुई मौत के बाद यमलोक पहुंच जाता है तो उसे जीवन और उसके होने के नए मायनों का भी पता चलता है. जहां उनकी मुलाकात वाई डी ( महेश बलराज ) यानि यमदूत और सी जी यानि चित्रगुप्त (अजय देवगन) से होती है. अयान को यकीन ही नहीं होता कि वो मर चुका है. ऐसे में यमराज और चित्रगुप्त उसे वापिस धरती पर भेजने का फैसला करते हैं लेकिन पाँच कुछ ऐसी शर्तों के साथ कि यदि वो उनपर खरा उतरा तो उसे एक बार फिर से जीने के मौका दिया जाएगा, नहीं तो नरक का द्वार उसके लिए पक्का है. फिल्म में कियारा खन्ना, कीकू शारदा और सीमा पाहवा के पात्र और चरित्र भी शामिल हैं .
गीत संगीत : फिल्म में अमर मोहिले का संगीत है और समीर के साथ मनोज मुंतशिर, मेल्लौडी और रश्मि विराग के गीत है लेकिन कोई भी गीत ऐसा नहीं है जिसे याद करके गुनगुना सके. फिर भी आप चाहें तो ज़ुबिन नौटियाल का गाया ‘ कोई अँखियो से पूछे’ और ‘दिल दे दिया’ जैसे गीतों को सुन सकते हैं.
अभिनय : फिल्म के केंद्र में सिद्धार्थ मल्होत्रा हैं और उन्होने अपनी भूमिका पर मेहनत की है लेकिन अपनी पिछली फिल्मों के मुक़ाबले मुझे वो इस फिल्म में बहुत प्रभावशाली नहीं लगते. इसकी वजह भी है कि अपनी भूमिका के पात्र को बहुत तोड़ने मरोड़ने की कोशिश में अपने चरित्र की घहराई को खो देते हैं जबकि अजय देवगन उनके सहयोगी पात्र के रूप में रोचक लगते हैं. बलराज ठीक हैं लेकिन रकुल प्रीत सिंह को थोड़ा और समय दिया जाना चाहिए था. सीमा पाहवा अब जानी पहचानी लगती है पर कंलवजीत सिंह अपनी छोटी सी भूमिका में याद रह जाते हैं .
निर्देशन : निर्देशक इन्द्र् कुमार पारिवारिक फिल्मों के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनमें भी वो कामेडी और सामाजिक मूल्यों को कहानी में जोड़े रखते हैं. धमाल, टोटल धमाल औऱ मस्ती जैसी फिल्मों के बाद विषय के हिसाब से ये उनकी एक रोचक फिल्म है लेकिन हास्य के तंत्र में ये बहुत अधिक फिट नहीं होती . फिल्म में भव्यता है लेकिन उसे स्पेशल इफ़ेक्ट्स के जरिये रचा गया है और राम सेतु के मुक़ाबले फिल्म अपने विषय और कथानक के साथ भी पूरी तरह न्याय नहीं करती. इसकी वजह भी ही कि बहुत साल पहले हिन्दी सिनेमा में ‘झुक गया आसमान’ और ‘लोक परलोक’ जैसी कमाल की फिल्में हम पहले ही देख चुके हैं .
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